दंगल के 9 साल: जब आमिर ख़ान ने एक फ़िल्म को बेटियों और सपनों की सबसे बड़ी बहस बना दिया
Tuesday, Dec 23, 2025-01:16 PM (IST)
नई दिल्ली/टीम डिजिटल। नौ साल बाद, डंगल सिर्फ़ एक फ़िल्म नहीं लगती, बल्कि भारत के सांस्कृतिक इतिहास का एक खास पल लगती है। दिसंबर 2016 में आई यह फ़िल्म एक स्पोर्ट्स बायोपिक थी, लेकिन बहुत जल्दी यह सपनों, जेंडर और पालन-पोषण पर देश-भर की चर्चा बन गई। एक ऐसे समाज में जहाँ अब भी पितृसत्ता मजबूत है, डंगल ने सपने देखने की कीमत पर सवाल उठाया।
कहानी में डंगल पहलवान महावीर सिंह फोगाट की ज़िंदगी दिखाती है, जो अपनी बेटियों गीता और बबीता को रेसलिंग सिखाते हैं, ताकि वे वो सपना पूरा कर सकें जो वह खुद नहीं कर पाए। लेकिन पर्दे पर आमिर ख़ान ने इस कहानी को और बड़ा और आज के समय से जुड़ा बना दिया। यह फ़िल्म मेडल जीतने से ज़्यादा, सपने देखने के हक़ की कहानी थी — खासकर उन लड़कियों के लिए जो छोटे शहरों में पलती हैं, जहाँ उनके सपनों को अक्सर दबा दिया जाता है।
आमिर का महावीर एक परफेक्ट पिता नहीं था। वह ज़िद्दी था, सख़्त था, कभी-कभी हुक्म चलाने वाला भी, लेकिन पूरी तरह इंसानी था। फ़िल्म ने उसे ज़रूरत से ज़्यादा प्रोग्रेसिव नहीं दिखाया। इसी वजह से डंगल दर्शकों को कंट्रोल, त्याग और पीढ़ियों के दबाव जैसी कड़वी सच्चाइयों से रू-बरू कराती है।
डंगल की सबसे बड़ी ताकत उसका सही समय पर आना था। जब महिलाओं की आज़ादी और उनके फैसलों पर बातचीत तेज़ हो रही थी, तब इस फ़िल्म ने नारे नहीं लगाए, बल्कि भावनाओं के ज़रिए बात कही। इंटरनेशनल मंच पर गीता फोगाट का खड़ा होना सिर्फ़ खेल की जीत नहीं था, बल्कि समाज के बदलने की उम्मीद का प्रतीक बन गया।
नौ साल बाद भी डंगल इसलिए याद की जाती है क्योंकि उसने वही भाषा बोली जिसे भारत समझता है — सच्चाई से जुड़ी भावनाओं की भाषा। इसने उपदेश नहीं दिए, बल्कि सोचने पर मजबूर किया। इसने तालियाँ माँगी नहीं, बल्कि खुद हासिल कीं। और ऐसा करके आमिर ख़ान ने याद दिलाया कि सिनेमा जब सबसे ताक़तवर होता है, तो वह सिर्फ़ मनोरंजन नहीं करता, बल्कि हमारी सोच को चुनौती देता है।
यही डंगल की सबसे बड़ी जीत है।
